Voices

Songs of the Forest

5 जुलाई की आधी रात बादल के तेज गरजन के साथ बारिश हुई। सुबह आंख खोलते आकाश साफ था। डेमरेचर 39 डिग्री थी। गर्मी, उमस और पसीने से तर-बतर शरीर और मन बेचैन था। 9 जुलाई को घुरती रथमेला लगेगा। अनुमन ग्रामीण किसान मानते हैं कि रथमेला तक खेतों में धान रोपाई, टांड में मडुआ रोपाई का काम खत्म-समाप्त होता था। टांड खेती, गोडा, गोंदली हलहलाने लगता था।  इन साल किसान खेतों में हल भी नहीं चला पाये हैं। बीज बोने के लिए कहीं खेत तैयार भी नहीं किया जा सका है। कारण कि प्री मानसून भी धोखा दे दिया। जून पहला सप्ताह तक आने वाला मानसून बारिश का कहीं पता नहीं। आज एक लोक गीत याद आने लगा, गीत का बोल है-
ऐसो का आकाल बरेखा गे नायो  

बारी भीतरे लेवा छीटाए रे....
.बारी भीतरे लेवा छीटाए...
ना लेवा फूटे, ना लेवा पाके,
खीसे जानी के मारै रे
 खीसे जानी के मारै। (हिंन्दी अनुवाद -इस साल आकाल में (प्रकृतिक अपदा) मानसून-बारिश की स्थिति खराब है, समय से बारिश नहीं हुआ, अचानक भारी बारिश हो रहा है, दोन-खेत में धान का बीजड़ा/गच्छी लगाने की स्थिति/समय सही नहीं है, इसलिए घर के पास बारी/बगान में धान पींड़ा/गच्छी लगा दिये। बेसमय में धान रोपनी किये, धान में बालियां ही नहीं लगा, धान के पौधों में आनाज ही पैदा नहीं हुआ, तब घर का पुरूष गुस्सा से पत्नि को पीट रहा है।) ये जलवायु परिर्वतन के घातक असर, जो आदिवासी किसान सामुदाय के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मानसिक स्थिति प्रतिकुल प्रभाव डालता है का विश्लेषण करता है।


वामिंग का प्रभाव सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव, पकृति के जीवनचक्र के साथ जुडे आदिवासी सामुदाय पर पड़ रहा है। जलवायु परिर्वन ने आदिवासी सामुदाय के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अस्तित्व पर सीधा प्रतिकूल असर डाल रहा है। अतिवृष्टि-अनावृष्टि, सूखा-आकाल की मार ने भूमि बंजरीकीरण के साथ ग्रामीण आबादी के पलायन को तेजी से बढ़ाने का काम कर रहा है। उपर वर्णित लोक गीत इसी दर्द को प्रकट करता है।


प्रकृतिकमूलक आदिवासी-मूलवासी सामाज की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जिंदगी भी प्रकृति के जीवनचक्र के साथ ही आगे बढ़ता है। बसंत ऋति के प्रकृति-पर्यावरण में नये पत्ते, नये फूलों के साथ ही आर्थिक समृद्वी का भी सहसास होने लगता है। पुटकल साग कोयनार साग साथ- साथ निकल आता है। बर, पाकर, पीपल, जाम, डुमाईर पकने लगा हैं। गांव के महिला, बच्चे, युवा बूर्जग पेड़ों के नीचे छुंड में बैठे, पटिया बिनते, खेलते दो पहर का समय बिताते । जबकि कैआ, मैना, सुगा-तोता पके फलों से लदे डालियों में चहकने लगते हैं। नये पत्ते-फूलों से सजी प्रकृति ने -आदिवासी-मूलवासी सामाज को सरहूल परब मनाने का न्योता भी देता है। यही तो है जिंदगी का बसंत, जो हम में जीने की उम्मीदें भरता है। चहकते चिडियों को देख कर गीत गा रहे हैं-छोटे-मोटे पिपाइर गछे -कौआ, मैंना, सुगा भरी गेलैं-कहे-कहे सुगा, मौना से भेलाएं झागरा, कहे-कहे कौआ, सुगा से भेलायं झागरा। (हिंन्दी-छोटा सा पीपल का पेड़ है, उस पर कौआ, मैना, तोता सहित सभी तरह के चिंडिया रहते हैं, कभी-कभी आप में झगड़ते हैं, क्यों कॉैआ, मैना से झगड़ रहे हो?)।


हां -जैसे जैसे पेंड़ों से पत्ते झडने लगें हैं-पूरी प्रकृति -पर्यावरण में नयी जिंदगी की आशाओं की कोंपले भी अपना रूप लेने लगा है। गांव के अगल-अगल के सेमल पेड़ लाल फूलों से लद गया है। देखते देखते गांव के आम बागीचा मंजर से ढंक गया है। महुंआ पेड़ में भी रूचू हो चुका है। ढेलकटा, कोरेया और साल के पेड़ दूधिया फूलों से ढ़क चुका है। जगल में लाल -बैगनी पत्तों से लदे कुसुम, महुआ, जाम पेड़ लोगों को संघर्ष करने और जीने का संदेष देने लगा है। कोयल की  कुहू-कुहू की मधुर आवाज आम के मंजरियों में मंडरा रहे मधु-मखियों में नयी जोष भर रहा है। कई ऐसे पेड़ हैं-जिसमें नयी पतियों के साथ ही फूल भी खिलने लगे हैं।


लेकिन आज के बाजारवाद और पूंूजीवादी अर्थव्यवस्था ने आदिवासी समूदाय और जंगल -जमीन को एक दूसरे से अलग करने का हर का हथकंड़ा अपना रहा है। आदिवासी समाज और जंगल के बीच के समरसता को जब्रजस्ती कटुता में बदलने का पूरा प्रयास किया जा रहा है।  यह सभी षटयंत्र सिर्फ आदिवासी समाज और प्रकृति को एक दूसरे से अलग कर प्रकृतिक संसाधनों पर पूंजीवाद का एकाधिकार अधिपत्य जमाने की कोशिश है।


तथाकथित विकास परियोजनाओं की वजह से 2 करोड झारखंडी आदिवासी-मूलवासी विस्थापित हो चुके हैं। इन विस्थापितों में से मात्र 5 से 6 प्रतिशत को ही किसी तरह पूनर्वासित किया जा सका है। शेष विस्थापित आज अपनी भूमि से बेदखल होकर एक बेला की रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। इनके पेट में आनाज नहीं है। इनके सर के उपर छत नहीं है। इसके बदन पर कपड़े नहीं हैं। इलाज के अभाव में बेमौत मर रहे हैं। कभी जमीन के खूंटकटीदार रहे विस्थापित, अब कुली-रेजा और बंधुआ मजदूर बन गये हैं। खेत-खलिहान से उजड़ने के बाद बहु-बेटियां महानगरों में जूठन धोने को मजबूर हैं। पहले जहां आदिवासियों की संख्या 70 प्रतिशत थी, 2001 की जनगणना में मात्र 26 प्रतिशत में सिमट गये। इन विस्थापितों में आज 80 प्रतिशत आदिवासी-दलित महिलाएं ऐेनेमिया (खून की कमी) की शिकार हैं। 85 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। आखिर विस्थापित आदिवासीं-मूलवासियों को क्या मिला। 80 प्रतिशत विस्थापित युवावर्ग बेरोजगार हैं-आखिर क्यों।

विकास के नाम पर उजड़े विस्थापितों के पीड़ा ने राज्य और देश के सामने कई अहम सवाल खड़ा किये हैं। यह सर्वविदित है कि इन सवालों के प्रति राजनेताएं, सरकारी तंत्र, राजकीय व्यवस्था तथा देश की कानून व्यवस्था भी र्निउतर है। विकास के नाम पर जंगज के जंगल उजाड़ दिया जा रहा है। औद्योगिकीकरण ने खेत-खलिहान, नदी-झील, झारना सहित प्रकृति की हरियाली को मारूस्थल और काला धुंआ उगलने वाली रक्षासी चिमनी ने ले लिया है।

विकास में योगदान देने के लिए झारखंड के किसानों-आदिवासियों-मूलवासियों ने अपने पूर्वजों द्वारा आबाद जल-जंगल-जमीन, घर-द्वार, खंेत-खलिहान सभी न्योछावर किया। इनकी जमीन पर एचईसी, बोकारो थर्मल पावर, तेनुघाट, चंद्र्रपुरा, ललपानिया डैम, सीसीएल, बीसीएल, इसीएल, चांडिल डैम, टाटा स्टील प्लांट, यूसीएल यूरेनियम माइंस, चिडिया माइंस, बोक्साइड खदान, चांडिल डैम, पतरातु थर्मल पावर प्लांट, टाटा स्टील, कोहिनूर स्टील, वर्मा माइंस, राखा माइंस, करमपदा, किरीबुरू, बदुहुरांग, महुलडीह जैसे सौकडा़ें खदान और कारखाना बैठाया गया। सवाल है इससे किसका विकास हुआ?। आदिवासी समुदाय को सिर्फ विस्थापन, पलायन, बेरोजगारी, भूख, कुपोषण, बीमारी, हवा प्रदूषण, जल प्रदूषण जैसे महामारी परोस दिया गया है।

पहले हम प्रकृति के बहुत निकट थे तब हम भले कम शिक्षित थे, लेकिन समाज खुशहाल था, स्थास्थ्य था, संगठित था। उस समय जंगली जानवर, जीव, जंन्तु, कीडे-मकोड़े, पशु-पक्षी सभी हमारे मित्र और सहजीवी थे। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं-प्रकृति-पर्यावरण, प्राणीमंडल और मनुष्य के बीच सामंजस्य था। और यही सामंजस्य की शत्कि हमें सभी महामारियों से लड़ने की शक्ति देता था।
आज देश विकास की जिन उंचाई पर पहुंचा है, ग्लोबल दुनिया, ग्लोबल पूंजी, ग्लोबल बाजार, ग्लोबल अर्थव्यवस्था, ग्लोबल वार्मिंग और ग्लोबल महामारी तक । इस ग्लोबल पूंजी नेे पूरी धरती, र्प्यावरण और मानव सभ्यता को मुनाफा से तौल रहा है। यही कारण है  िकइस ग्लोबल पूुजी बाजार में मुनाफा के सामने प्रकति, र्प्यावरण और मानव जीवन कमजोर पड़ता जा रहा है। परिणाम सामने है, गर्मी में बरसात और बरसात में गर्मी, ठंड में गर्मी और गर्मी में ठंड।


दुनिया में विकास की इतनी तेज रफतार है कि प्रकति ने अपनी गति और नीयती ही बदल दी। यही नही प्रकति ने अपनी स्वरूप भी बदली रही है। जहां घनघोर बीहड़ हरियाली जंगल
था । हरियाली से ढंके पहाड थे, इठलाती कलकल करती नदियां बहती थी। अगहन महिना में दूर-दूर तक फैली खेतो में धान की बालियां झुमती थी, गेंहू, मटर, बजरा, ज्वार सभी तरह के पत्तेदार साग-सब्जीयों के किसानों के खेत पटे होते थे। सभी गायब होते जा रहा है, इसके स्थान में कंकीडे महलों की खेती हो रही है।


विकास की इस अंाधी दौड ने देश और दुनिया के सामने कोरोना महामारी को भी परोस दिया। एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना से हुई मौत का आंकडा उन महानगरो और शहरों में अधिक है, जहां प्रदूषण अधिक है। ग्रामीण आदिवासी इलाकों में कोरोना से हुई मौत का आंकडा बहुत कम है। शायद इसलिए कि ग्रामीण आदिवासी इलाका आज भी प्रकृति-र्प्यावरण की गोद में हैं। कोरोना महामारी के दौरान लाखों रूप्या साथ लेकर लोग आस्पतालों में ऑक्सीजन बेड ढुंढ रहे थे, ऑक्सीजन सेलेंडर खोज रहे थे, लेकिन नहीं मिल रहा था, और हजारों जानें चली गयी। इस महामारी ने देश को संदेश दिया है, कि प्रकृति ने जो ऑक्सीजन मनुष्य को मुफत में दिया है, उसकी रक्षा करना चाहिए। आदिवासी सामुदाय का जल, जंगल, जमीन की रक्षा का संघर्ष भी यही संदेश देता है ।
आदिवासी समूदाय मानती है कि-हमारे  इतिहास, सामाजिक मूल्यों, भाषा-सांस्कृतिक अस्तित्व को किसी मुआवजे से भरा नहीं जा सकता है न ही किसी तरह से पूर्नर्वासित किया जा सकता है। इसीलिए पूरे गांव से लेकर, राज्य, देश ही नहीं पूरे विश्व में आदिवासी समुदाय ज्रगल-जमीन और र्प्यावरण की रक्षा के लिए शहीद हो रहे हैं, लेकिन र्प्यावरण को नष्ट कर किसी तरह विकास स्वीकार नहीं करते।